Saturday, June 25, 2011

पागल दोड़

पागल दोड़
हम पत्थर हो चुके है
समाज .स्भीयता और पेसे की दोड़ मे
शायद एस का किसी को एहसास भी
नही
मै भी सब की तरह इस
दोड़ मे दोड़े जा रहा हू
समाज स्भीयता ने पागल
कर दिया है सब को
एक नशा सा हो गया है सब
दोलत , शोरत
और समाज मै केसे भी नाम पाने का
सब दुसरे को पागल
समझते है
खुद को समझदार
बस एह है भूल
भल-ईया
कुदरत ने सब को
अपने बश मै कर रखा है
कतील हो रहे है
हम दोड़े जा रहे
सब रिश्ते नाते तोड़ के
अर्पण पागल
बहुत समझदार है
दोड़ते रहो
जब तक दम निकल जाये
राजीव अर्पण

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