Friday, May 6, 2011

ग़ज़ल

साँस रुक-रुक के चलने लगी है ,

जेसे-जेसे शाम ढलने लगी है ।

सुबह तेरे आने की आशा थी मुझ को ,

सूरज के साथ ढलने लगी है ।

तेरी यादो के मन्दिर मे चला हु ,

यह दुनिया बेगानी लगने लगी है ,

देख तेरे बिना जिन्दगी नही अपनी ,

यद् किया तम्नाये मचलने लगी है ।

तमन्ना की आँखों मे खून आ गया है ,

यह तडप कर जब से जलने लगी है ।

भुला तुम्हे तो जिन्दगी भूल गई,

जिन्दगी बेवफा क्या करने लगी है ।

बे-बफा दिल तुमे कभी कहता नही है ,

सदा मेरी ही कमिय उभरने लगी है ।

बस दर्दीली ग़ज़ल बस कर अर्पण ,

फिजाये भी सिसकिया भरने लगी है ।

राजीव अर्पण

No comments:

Post a Comment