ग़ज़ल
जो फूल महक बांटे, वो बिखराने के लिए नहीं,
जो दिल तुम्हे चाहे वो ठुकराने के लिए नहीं।
माना के ज़खीरा हु 'अर्पण' मैं गुनाहों का,
चर्चा मेरी भूलो का दोहराने के लिए नहीं।
मेरी बर्बादी पे तुम्हे भी रोना चाहिए,
मेरी बर्बादी तेरे मुसुक्राने के लिए नहीं।
हमने तो करदी ज़िन्दगी तेरे अर्पण,
तेरे पास समे, पास बिठाने के लिए नहीं,
तेरा है 'अर्पण' तो सिर्फ तेरा है 'सनम',
ये ग़ज़ल तेरी है ज़माने के लिए नहीं।
राजीव अर्पण
nice
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